Saturday, November 4, 2017

Interview with Dr. Harekrishna Meher | By Dr. Naba Kishore Mishra (Hindi Version)

An Interview with Dr. Harekrishna Meher 
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Published in ‘Bartika’ (Famous Odia Literary Quarterly),
October-December 2017, Dashahara Puja Special Issue, pages 1503-1521.
Saraswat Sahitya Sanskrutik Parishad, Dasarathpur, Jajpur, Odisha.
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(From Original Odia, Hindi Translation by Dr. Harekrishna Meher
with kind permission of the Interviewer Dr. Naba Kishore Mishra,
Chief Editor of ‘Bartika’ magazine)
उपस्थापना एवं प्रस्तुति : 
डॉ. नवकिशोर मिश्र (मुख्य सम्पादक, ‘बर्त्तिका’) 
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डॉ. हरेकृष्ण मेहेर से एक साक्षात्कार :
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‘सकारात्मक चिन्तन सहित जीवनधर्मी रचना कालजयी बनने का सामर्थ्य रखती है ।’
   - डॉ. हरेकृष्ण मेहेर .
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    ओड़िशाप्रदेश के अविभक्त कलाहाण्डि जिला, सम्प्रति नूआपड़ा जिला के अन्तर्गत ग्राम सिनापाली में दिनाङ्क --१९५६ में डॉ. हरेकृष्ण मेहेर का जन्म हुआ । पिता कवि नारायण भरसा मेहेर, माता सुमति देवी पितामह कवि मनोहर मेहेर (१८८५-१९६९) पश्चिम ओड़िशा केपल्लीकवियागणकविके रूप में चर्चित हैं  

   सिनापालि ग्राम के केन्द्र उच्च प्राथमिक विद्यालय, मध्य अंग्रेजी विध्यालय एवं उच्च विद्यालय में अध्ययन   इन सभी की परीक्षाओं में कृतित्व के साथ प्रथम-श्रेणी में उत्तीर्ण सिनापालि उच्च विद्यालय में मैट्रिक्, तत्कालीन ग्यारहवीं कक्षा में अध्ययन-पूर्वक माध्यमिक शिक्षा परिषद, ओड़िशा से १९७१ में प्रथम श्रेणी प्राप्त गङ्गाधर-मेहेर महाविद्यालय, सम्बलपुर में अध्ययन-पूर्वक सम्बलपुर विश्वविद्यालय से प्राग्‍-विश्वविद्यालय कला (१९७२) में द्वितीय स्थान एवं प्रथम वार्षिक डिग्री कला (१९७३) में प्रथम श्रेणी प्राप्त रेवेन्सा महाविद्यालय, कटक में अध्ययन-पूर्वक उत्कल विश्वविद्यालय से स्नातक (बी..) संस्कृत नर्स (१९७५) में डिस्टिङ्कशन् सहित प्रथमश्रेणी में प्रथम स्थान अधिकार

   बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से उपाधि-त्रय : स्नातकोत्तर (एम्..) संस्कृत (१९७७) में प्रथम-श्रेणी में प्रथम इसलिये हिन्दु विश्वविद्यालय स्वर्णपदक, कृष्णानन्दपाण्डेय-सहारनपुर-स्मारक स्वर्णपदक एवं काशीराज पदक से सम्मानित डिप्लोमा-इन्-जर्मन् (१९७९) परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त संस्कृत में गवेषणा-पूर्वक १९८१ में पीएच्.डी. उपाधि प्राप्त उनका शोध-विषयनैषधचरित में प्रतिफलित दार्शनिक चिन्ताधारा  ‘Philosophical Reflections in the Naisadhacarita’ शीर्षक अंग्रेजी में लिखित शोध-ग्रन्थ १९८९ में पुन्थि पुस्तक, कलकाता द्वारा प्रकाशित होकर आन्तर्जातिक स्तर में ख्यातिप्राप्त एम्.. अध्ययन काल में जातीय मेधावृत्ति एवं गवेषणाकाल में यु.जी.सी. फेलोशिप् प्राप्त

   अध्यापक डॉ. हरेकृष्ण मेहेर एक ही धारा में प्रचण्ड प्रतिभा के अधिकारी, प्राबन्धिक, कवि, साहित्यिक, गवेषक, मीक्षक, गीतिकार, स्वर-रचनाकार एवं सुवक्ता हैं २०१४ में ओड़िशा शिक्षासेवा से सेवानिवृत्त हैं ओड़िशा साहित्य अकादेमी के पूर्व सदस्य हैं उनकी विभिन्न रुचियों की कवितायें एवं शोध-लेख राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों, विश्व-सम्स्कृत- सम्मेलनों और कई कवि-सम्मेलनों में उनका सक्रिय योगदान रहा है आधुनिक संस्कृत साहित्य के एक विशिष्ट कवि एवं गीतिकार के रूप में जातीय स्तर पर सुपरिचित हैं उनकी कविताओं एवं गीतों में अनुभूत होता है सांगीतिकता के संग हृदयस्पर्शी माधुर्य, पदलालित्य एवं आनुप्रासिकता का प्राचुर्य

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डॉ. मेहेर की प्रमुख रचनावली :  
संस्कृत में :  
मातृगीतिकाञ्जलिः, पुष्पाञ्जलि-विचित्रा (मौलिक संस्कृत-गीतिकाव्य), मौनव्यञ्जना, जीवनालेख्यम्, अस्रमजस्रम्, सौन्दर्य-सन्दर्शनम्, उत्कलीय-सत्कला, हासितास्या वयस्या (हाइकु-सिजो-तान्का-सङ्कलना), स्तवार्च्चन-स्तवकम्, सूक्ति-कस्तूरिका, सारस्वतायनम्, मेहेरीय-छन्दोमाला, नैषध-महाकाव्ये धर्मशास्त्रीय-प्रतिफलनम्, साहित्यदर्पण: अलङ्कार ।                            
अनूदित :  स्वभावकवि-गङ्गाधर-मेहेर-प्रणीत तपस्विनी, प्रणयवल्लरी एवं अर्घ्यथाली, कविवर-राधानाथ-राय-कृतबर्षाकविता, चलचित्रगीत-संस्कृतायनम् आदि अनुवाद उनकी अनन्य कृतियाँ हैं   
ओड़िआ में :  
आलोचनार पथे (शोधप्रबन्धावली), भञ्जीय-काव्यालोचना, भञ्ज-साहित्यरे जगन्नाथ-तत्त्व, घेन नैषध पराये, ओड़िआ रीति-साहित्यरे दार्शनिक चिन्तन, निबन्धायन, कबिताबळी, सती सावित्री नाटक, ओड़िआ बर्णमाळार कृत्रिम समस्या, श्रीकृष्ण जन्म (मौलिक कविता), मनोहर पद्यावली (सम्पादित)  
अनूदित :  श्रीरामरक्षास्तोत्र, शिवरक्षास्तोत्र, शिवताण्डव-स्तोत्र, विष्णुसहस्रनाम,
गायत्रीसहस्र-नाम श्रीमद्भगवद्गीता, कुमारसम्भव, रघुबंश, मेघदूत   

अंग्रेजी में :  पीएच्.डी. गवेषणा-ग्रन्थ  ‘Philosophical Reflections in the Naisadhacarita’, 
                  Poems of the Mortals, Glory (Research Articles and Essays).
अनूदित :  Tapasvini of Gangadhara Meher,  Gita-Govinda of Jayadeva.  

हिन्दी में :  हिन्दी सारस्वती, कुछ कविता-सुमन अनूदित : तपस्विनी-काव्य
कोशली में :  कोशली गीतमाला अनूदित : कोशली मेघदूत

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बर्त्तिकामुखपत्र  के विभिन्न दशहरा- विशेषाङ्कों में प्रकाशित :
ओड़िआ पद्यानुवाद : भर्त्तृहरि-कृत नीति-शतक, शृङ्गार-शतक  ओर वैराग्य-शतक, नैषधचरित-नवम सर्ग, कुमारसम्भव के प्रथम-द्वितीय-पञ्चम-सप्तम-अष्टम सर्ग, रघुवंश-द्वितीय सर्ग, ऋतुसंहार, मेघदूत, गीतगोविन्द कोशली मेघदूत (मेघदूत काव्य का संपूर्ण कोशली गीत अनुवाद)
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साहित्यिक सम्मान : एक साहित्यिक रूप में पाटणागड़ सांस्कृतिक परिषद से  गङ्गाधर सम्मान (२००२), गङ्गाधर साहित्य परिषद, बरपालि से गङ्गाधर सारस्वत सम्मान (२००२), निखिल ओड़िशा संस्कृत कवि-सम्मेलन, कटक से जयकृष्ण मिश्र काव्य-सम्मान (२००३), राज्यस्तरीय पण्डित-नीलमणि-विद्यारत्न स्मृति-संसद, भुवनेश्वर से विद्यारत्न प्रतिभा-सम्मान (२००५),  राज्यस्तरीय स्वभावकवि-गङ्गाधर स्मृति-समिति, बरपालि एवं केदारनाथ कला-साहित्य संसद, अम्बाभोना से अशोकचन्दन-स्मारक गङ्गाधर-सम्मान (२००९), एकाडेमी अफ् बेङ्गली पोएट्रि, कोलकाता से आचार्य-प्रफुल्लचन्द्र-राय-स्मारक सम्मान (२०१०), गङ्गाधर मेहेर क्लब्, बरपालि से हरिप्रिया-मुण्ड-स्मारकी गङ्गाधर-मेहेर-सम्मान (२०१०), ‘कोशली मेघदूतपुस्तक के लिये सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योतिविहार, सम्बलपुर से डॉ. नीलमाधव-पाणिग्राही-सम्मान (२०१०), ओड़िशी एकाडेमी, लोधि रोड़्, नवदिल्ली द्वारा आयोजित जयदेव उत्सव-२००८  में  एवार्ड़् अफ् एप्रिसिएशन् , बालाजी मन्दिर सुरक्षा समिति, पण्डित-सम्मिलनीभवानीपाटना से वाचस्पति- गणेश्वर-रथ-वेदान्तालङ्कार सम्मान (२०१३), महावीर सांस्कृतिक अनुष्ठान, भवानीपाटना से विश्व-संस्कृत-दिवस-सम्मान (२०१३) प्राप्त୤   
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साहित्यिक संवर्द्धना और अभिनन्दन  प्राप्त हुए हैं :
खरियार साहित्य समिति, खरियार (१९९८), गदाधर साहित्य संसद, कोमना, नूआपड़ा (१९९८), सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योतिविहार (२०००), शिक्षाविकाश परिषद, कलाहाण्डि, भवानीपाटना (२००३), कलाहाण्डि लेखक कला परिषद, भवानीपाटना (२००३), अभिराम स्मृति पाठागार ट्रष्ट, भवानीपाटना (२००६), उदन्ती महोत्सव, सिनापालि, नूआपड़ा (२०१२),  कलाहाण्डि लेखक कला परिषद, बनानी कवि सम्मिलनी, भवानीपाटना (२०१३), गङ्गाधर सारस्वत समिति, सिनापालि, नूआपड़ा (२०१६) से  ।

  ऐसे एक सारस्वत साधक के साथ हुए साक्षात्कार का विवरण ‘बर्त्तिका’ के पाठकवर्ग के लिये निम्नरूप से 
उपस्थापित है ।   
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* प्रश्न () :
आपके लेखन कार्य में किस परिस्थिति में कहाँ से प्रेरणा मिली थीइस विषय पर कुछ प्रकाश डालेंगे
* उत्तर : 
     मेरे परम पूज्य पितामह कवि मनोहर मेहेर पश्चिम ओड़िशा केगणकवियापल्लीकविके रूप में अनेक लेखकों के लेखों में चर्चित हैं मेरे पूज्य पिता कवि नारायण भरसा मेहेर उच्च प्राथमिक केन्द्र विद्यालय के प्रधान-शिक्षक थे वे अनेक साहित्यिक अनुष्ठानों से संवर्धना-प्राप्त एवं ओड़िशा साहित्य अकादेमी द्वारा  प्रदत्तसारस्वत-सम्मानसे विभूषित थे कवि-परिवार में जन्म होने के नाते बाल्यकाल से साहित्य के प्रति मेरा गभीर अनुराग जाग्रत हुआ था उभय पिता एवं पितामह मेरी साहित्यिक दिशा में प्रेरणा के उत्स हैं  पिताजी अनेक-भाषावित्, संगीत-साहित्यानुरागी, पुस्तकप्रिय एवं आधुनिक-दृष्टिभंगी-सम्पन्न थे सिनापालि ग्राम में हमारे घर में ओड़िआ भागवत, रामायण, महाभारत, वैदेहीश-विलास, लावण्यवती, दाण्डि-रामायण, राधानाथ-ग्रन्थावली, गंगाधर-ग्रन्थावली, विभिन्न पुराण, अनेक संस्कृत काव्य, अमरकोष, कई अभिधान पुस्तक एवं अन्यान्य अनेक कवि-लेखकों की विभिन्न रुचियों के पुस्तकें रखी थीं ओड़िआ, हिन्दी, संस्कृत और बंगाली भाषा की गीता-पुस्तक सहित कई ग्रन्थ उनमें अन्तर्भुक्त थे गीता प्रेस, गोरखपुर  द्वारा प्रकाशितकल्याणमुखपत्र के अनेक विशेषांक ग्रन्थ अपने पुस्तकालय थे पिताजी ने मुझे बाल्यकाल से ओड़िआ, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगाली भाषा की शिक्षा प्रदान की थी पारिवारिक परिवेश में ही मेरी साहित्यिक मूलभित्ति स्थापित हुई है मेरे पूज्य पिता विद्यालय में गुरु भी थे उनसे मैंने असीम प्रेरणा सहित उत्साह प्राप्त किये हैं पिता-माता के स्नेहाशीर्वाद से आज तक साहित्यिक क्षेत्र में मुझे इतनी उन्नति प्राप्त हुई है

   प्राथमिक विद्यालय में छात्रावस्था में छोटी-छोटी कवितायें और गीत लिखा करता था संस्कृतानुरागी पिताजी की प्रेरणा से हाईस्कूल में मेरा इच्छाधीन विषय संस्कृत रखा था अष्टम कक्षा में पढ़ते समयश्रीकृष्णजन्मपुस्तक लिखी थी दशम कक्षा में पढ़ते समय संपूर्ण गीता का बंगलाश्री-राग में ओड़िआ पद्यानुवाद किया था १९६९ में अनूदित इस रचना में मेरे पूज्य पितामह के आशीर्वाद-लेख एवं बाबा वैष्णवचरण दास केअभिमतसंलग्न हैं अद्यावधि उपयुक्त सुयोग के अभाव के कारण यह गीता-पुस्तक अप्रकाशित है महाविद्यालयॊं में अध्ययन काल में मैंने कुमारसम्भव, रघुवंश, मेघदूत आदि कुछ काव्यों के ओड़िआ अनुवाद किये थे यह सब कार्य विशेष-रूप से अवकाश में घर में रहते समय सम्पन्न होता था अपने घर में विभिन्न प्रकार पुस्तक एवं अनुकूल परिवेश के कारण साहित्य में यह सब सम्भव हुआ है  

* प्रश्न (२) : गंगाधर-मेहेर महाविद्यालय , सम्बलपुर में अध्ययन के समय आपकी कैसी अनुभूति रही ?
* उत्तर : 
     अपने गाँव के सिनापालि हाईस्कूल में १९७१ में मैट्रिक् (ग्यारहवीं कक्षा) उत्तीर्ण होने के बाद सम्बलपुर के गंगाधर-मेहेर-महाविद्यालय में नाम लिखाकर प्राग्-विश्वविद्यालय और प्रथम वर्ष डिग्री कला कक्षाओं में दो वर्ष अध्ययन किया । ग्राम्य परिवेश से आकर नये स्थान में रहने के लिये पहले कुछ असमञ्जस  लग रहा था । बाद में अभ्यास हेतु सब अच्छा लगा । महाविद्यालय के ट्रस्ट् फण्ड छात्रावास में दो साल रहा । महाविद्यालय तथा छात्रावास के मुखपत्रों में मेरे लेख प्रकाशित हुए । अध्ययन का परिवेश बहुत अच्छा था  । हमें संस्कृत विषय पढ़ा रहे थे प्रोफ़ेसर सदाशिव प्रहराज महोदय । वे बहुत स्नेही एवं छात्रवत्सल हैं । आवश्यक पाठों के साथ विभिन्न काव्यों से शिक्षणीय सूक्ति, नीतिवाणी एवं स्तोत्र आदि की शिक्षा भी देते थे । मुझे याद है, मार्गशिर मास गुरुवार (लक्ष्मीव्रत) के दिन अपने गृह से प्रस्तुत पिष्टक एवं मिठाई लेकर छात्रावास में मुझे बुलाकर खाने के लिये देते थे । २०१२ में भवानीपाटना से स्थानान्तरित होकर जी.एम्. कॉलेज में अध्यापक-रूप में योग देने के बाद उनसे कई बार भेंट हुई । पूर्व स्नेह एवं पठन की बातों का उन्हें स्मरण कराया । उन्होंने बहुत आनन्द का अनुभव किया । उनका स्नेहाशीर्वाद सदैव स्मरण रहेगा । छात्रावास में जाकर मैंने पूर्व स्मृतियों का अनुभव किया । मेरे अध्ययन के दौरान महाविद्यालय में एकबार दिव्यजीवन-संघ के स्वामी चिदानन्द सरस्वतीजी के लिये एक सभा का आयोजन हुआ था । उसमें जाकर स्वामीजी के श्रीमुख से अभिभाषण सुनकर मैंने बहुत आनन्द सहित प्रसन्नता का अनुभव किया था ।  

* प्रश्न (३) : ओड़िशा के सुप्रथित शिक्षानुष्ठान रेवेन्सा महाविद्यालय, कटक में आपने बी.. संस्कृत नर्स कक्षा में अध्ययन किया था वहाँ पर आपकी अनुभूति के बारे में कुछ कहेंगे  
* उत्तर : 
      १९७३ में सम्बलपुर से प्रथमवर्ष डिग्री कला कक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद स्नातक संस्कृत-ऑनर्स पढ़ने के लिये कटक के रेवेन्सा महाविद्यालय में नाम लिखाया पिताजी की बहुत अभिलाषा थी कि पुत्र बड़े महाविद्यालय में पढ़कर सुनाम रखे प्रभु के शीर्वाद से वह सफल हुई उसी समय रेवेन्सा के संस्कृत विभाग में हम आठ ऑनर्स विद्यार्थी थे उसमें छह छात्र एवं दो छात्रायें उस समय प्रोफेसर आन्तर्जातिक-ख्याति-सम्पन्न वैज्ञानिक डॉ. महेन्द्रकुमार राउत महोदय महाविद्यालय के अध्यक्ष थे अध्यापिका डॉ. सावित्री राउत महोदया संस्कृत-विभागीय मुख्य थीं वे बहुत स्नेहशीला एवं छात्रवत्सला थीं मेरे प्रति उनकी विशेष श्रद्धा सहित आदर चिरस्मरणीय रहेगा रेवेन्सा महाविद्यालय के पूर्व-छात्रावास में प्रथम वर्ष मैं एक पाँच-शय्याबाले कमरे में रहता था एवं द्वितीय वर्ष में २१ नम्बरबाले एकक कमरे में स्थान मिला अध्ययन का वातावरण बहुत अच्छा था धीरे-धीरे नये स्थान और नये मित्रों से परिचय हुआ वहाँ उत्साह के साथ अध्ययन में मनोनिवेश किया था

    वहाँ विभागीय अध्यापक-अध्यापिकाओं के अतिरिक्त हमें पढ़ानेके लिये अतिथि-अध्यापक के रूप में वरेण्य प्रोफेसर प्रह्लाद प्रधानप्रोफेसर रंगाधर षड़ंगी एवं प्रोफेसर लड़ुकेश्वर शतपथी महोदय आया करते थे पूज्य गुरुजनों से संस्कृत पाठ सहित बहुत शिक्षणीय विषय प्राप्त करने का सुयोग हमें मिला उसी समय संस्कृत स्नातक कक्षा में मेरा पास-विषय था दर्शनशास्त्र (फिलोसफी) १९७५ में संस्कृत ऑनर्स परीक्षा में समग्र उत्कल विश्वविद्यालय में प्रथमश्रेणी में प्रथम स्थान एवं डिस्टिङ्कशन् सहित उत्तीर्ण होने का सौभाग्य मिला ऑनर्स परीक्षा के सारे प्रश्नपत्रों के उत्तर मैंने संस्कृत-भाषा में देवनागरी लिपि में लिखे थे, केवल अंग्रेजी अनुवाद प्रश्न को छोड़कर महाविद्यालय केरेवेन्सावियान्मुखपत्र में मेरे लेख प्रकाशित हुए थे कटक में साहित्यिक परिवेश विशेषरूप से अध्ययन हेतु बहुत अनुकूल एवं प्रेरणाप्रद रहा था रेवेन्सा महाविद्यालय के छात्र-रूप में भी मैं गौरवान्वित अनुभव करता हूँ । 

   उदन्ती नदी के दक्षिण तट पर अपना ग्राम सिनापालि अवस्थित है वहाँसे बहुत दूर कटक में रहकर अध्ययन कर रहा था सिनापालि से राजखरियार तक प्राय २८ किलोमीटर रास्ता बीच में दो नदियाँ और एक नाला उसीसमय बस्-यान की सुविधा नहीं थी और पैदल चलकर या साईकिल से जाना पड़ता था वर्षा में बाढ़ के समय नौका से नदी पार जाना पड़ता था खरियार से बलांगीर बस से आकर, वहाँसे फिर प्रतीक्षा करके अन्य किसी बस से कटक जाना पड़ता था इसप्रकार अनेक शारीरिक परिश्रम और कष्ट अपने छात्र-जीवन में झेले हैं आजकल तो सभी ओर से गमनागमन की बहुत सुविधा हो गयी है । 

* प्रश्न (४) :  
रेवेन्सा महाविद्यालय के बाद आपने भारत के विश्वप्रसिद्ध गौरवमय शिक्षाकेन्द्र बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में एम्.. संस्कृत अध्ययन किया वहाँ संस्कृत में गवेषणा करके पीएच्.डी. उपाधि प्राप्त की, उसके साथ र्मन्-भाषा में डिप्लोमा भी की उधर तत्कालीन परिवेश और आपकी अनुभूति के बारे में हमें कुछ अवगत करायेंगे   
* उत्तर :
     कटक के रेवेन्सा महाविद्यालय में बी.ए. ऑनर्स् पढ़ने के बाद मेरी आन्तरिक अभिलाषा जागी बनारस में संस्कृत एम्.ए. पढ़ने के लिये । पिताजी मेरे अध्ययन की दिशा में मुझे निरन्तर उत्साह और प्रेरणा देते थे । मैं एकमात्र पुत्र हूँ, फिर भी उन्होंने मुझे घर से बहुत दूर सुप्रसिद्ध बनारस में अध्ययन हेतु भेजने में कभी अवहेला या कुण्ठा व्यक्त नहीं की । दिसम्बर १९७५ में हिन्दु विश्वविद्यालय में मेरा नाम लिखाना सम्पन्न हुआ ।

    बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय (अन्य नाम ‘काशी हिन्दु विश्वविद्यालय’) महामना पण्डित मदनमोहन मालवीयजी द्वारा प्रतिष्ठित है । उसके स्वनामधन्य संस्कृत-विभाग के मुख्य थे प्रोफेसर् डॉ. विश्वनाथ भट्टाचार्य महोदय । एम्.ए. प्रथम वर्ष में छात्र-छात्रागण मिलकर प्राय १००-संख्यक थे । भारत के विभिन्न राज्यों से और नेपाल से भी विद्यार्थीगण आकर वहाँ संस्कृत अध्ययन करते थे । इस कक्षा में ओड़िशा का मैं एकमात्र छात्र था । इससे पूर्व अनेक वर्षों तक संस्कृत में ओड़िआ छात्र वहाँ नहीं गये थे, ऐसा सुननेको मिला था । मेरे द्वितीय-वर्ष में रेवेन्सा कॉलेज के बन्धु श्रीभरतचन्द्र नाथ प्रमुख विद्यार्थीवृन्द एम्.ए. संस्कृत प्रथम- वर्ष में नाम लिखाकर अपनी उत्कृष्टता दर्शाने के साथ ओड़िआ छात्रों की संख्यावृद्धि में सहायक हुए थे । 

    बन्धुगण बनारस में मुझे ‘मेहेरजी’ कहकर सम्बोधन करते थे । बिरला छात्रावास में रहता था । उत्तम अध्ययन के कारण विद्यार्थीगण मुझे बहुत आदर करते थे । मैं थोड़ा संगीतप्रिय हूँ । मेरी इस कला को जानकर गुरुजीवृन्द विभागीय विभिन्न उत्सवों और कार्यक्रमों में संस्कृत गीत गाने के लिये मुझे सस्नेह उत्साह से आमन्त्रित करते थे । मेरे लिये निश्चितरूप से यह सौभाग्य का विषय था । विश्वविद्यालय में हड़ताल बन्द होने के बाद एम्.ए. प्रथम वर्ष परीक्षा आदि नियमित यथासमय सम्पन्न हुई । मुझे प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ । द्वितीय वर्ष में मेरा स्वतन्त्र पत्र था भारतीय-दर्शनशास्त्र । १९७७ में एम्.ए. शेषवर्ष-परीक्षा में भी मैं प्रथमश्रेणी में प्रथम स्थान पाकर उत्तीर्ण हुआ  ।

    एम्.ए. अध्ययन करते समय मुझे जातीय मेधावृत्ति (नैशनल् स्कोलरशिप्) दो वर्ष तक प्राप्त हुई । उसमें सर्वोच्च प्रथम स्थान प्राप्त होने के बाद वहाँ डॉक्टरेट् गवेषणा के लिये नाम लिखाया । योग्यता की दृष्टि से मुझे प्रथम दो वर्ष यूजीसी जूनियर फेलोशिप् एवं अगले दो वर्ष सीनियर फेलोशिप् प्राप्त हुई । मेरा शोध-विषय था ‘नैषधचरित में प्रतिफलित दार्शनिक चिन्ताधारा’ । इस विषय में मेरे तत्त्वावधारक थे पूज्य गुरुजी प्रोफेसर डॉ. कृष्णनाथ चटर्जी । शोध-निबन्ध देशविदेश में सभीका बोधगम्य हो सके, इसलिये अंग्रेजी में लिखा था । १९८१ सितम्बर में मुझे डॉक्टरेट् उपाधि का प्रमाणपत्र प्राप्त हुआ । तत्कालीन शिक्षापद्धति के अनुसार शोधकार्यकाल के बीच एक साथ दो भिन्न-भिन्न विभागों की कक्षाओं में नाम लिखाने के साथ उपाधि प्राप्त होती थी । इसलिये १९७७ में एम्.ए. के बाद मेरे शोध-कार्य सहित द्विवर्षीय जर्मन्-भाषा डिप्लोमा कक्षा में मैंने नाम लिखाया । १९७९ में इस जर्मन्-इन्-डिप्लोमा परीक्षा में प्रथमश्रेणी में कृतित्व सहित उत्तीर्ण हुआ । पूज्य गुरुवर्यों के विद्यार्थियों के प्रति सुव्यवहार, स्नेहादर, समुचित शिक्षादान एवं अध्यापना-शैली आदि मेरे जीवन में सर्वदा अविस्मरणीय रहेंगे ।  

* प्रश्न (५):
बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में अध्ययन अवधि में अन्यान्य विभाग, व्यक्तिविशेष और अनुष्ठान आदि के साथ आपकी सम्पृक्ति के बारे में कुछ सूचना दें । बनारस में आपकी सारस्वत साधना के बारे में भी कुछ बतायेंगे ।
* उत्तर : 
    बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में विभिन्न विभागों द्वारा अनुष्ठित प्रबन्ध-प्रतियोगिता एवं तर्क-प्रतियोगिता आदि में अंशग्रहणपूर्वक पुरस्कृत हुआ हूँ । संस्कृत विभाग में विभिन्न उपलक्ष्यों में कार्यक्रम सहित दोनों वर्षों के विद्यार्थियों के बीच संस्कृत-श्लोक-अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता भी हुआ करती थी । उसमें प्रमुख रूप से भाग लेकर मैं सुपरिचित और प्रियभाजन हुआ था । बनारस में स्थित तत्कालीन ‘ओड़िआ ऐसोसिएशन्’ एवं ‘वाराणसेय उत्कल समाज’ के अनेक उत्सवों, सभा-समितियों और कार्यक्रमों में मिलकर मुझे मित्रों के साथ विशेष आनन्द प्राप्त हुआ है । उधर विशेषरूप से विश्वप्रसिद्ध काशीविश्वनाथ मन्दिर दर्शन और पावनी पुण्यतोया गङ्गानदी में स्नान करके स्वयं को बहुत भाग्यवान् मानता हूँ । वाराणसी में अवस्थान के समय निकटवर्त्ती विभिन्न दर्शनीय स्थलों के दर्शन करने का उपयुक्त अवसर मुझे प्राप्त हुआ है । हिन्दु विश्वविद्यालय के प्रख्यात भाषातत्त्ववित् तथा भाषाविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. सत्यस्वरूप मिश्र महोदय के साथ विशेष परिचय हुआ था । वे ओड़िआ व्यक्ति थे । अध्यापक होने के साथ-साथ चित्रकार भी थे । मित्र भरतचन्द्र-नाथजी के साथ मुझे बहुत आदर से अपने घर बुलाकर भोजनादि से उन्होंने कई बार आप्यायित किया है । उनके हस्ताङ्कित कुछ चित्रों का फोटो भी मैंने अपने कैमरे से उससमय लिया था । उनकी सस्नेह श्रद्धा सदा स्मरणीय रहेगी । 

    गवेषणा के प्रारम्भ में महाकवि-श्रीहर्ष-प्रणीत ‘नैषधचरित’ महाकाव्य के सम्पूर्ण अध्ययन करने का अवसर मिला । कालिदासीय कुमारसम्भव महाकाव्य के पञ्चम-सर्ग में वर्णित छद्मवेशी बटु शिव एवं तपस्विनी पार्वती के युक्तिपूर्ण कथोपकथन की भाँति नैषधीय नवम-सर्ग में छद्मवेशी देवदूत राजा नल और राजकन्या दमयन्ती का परस्पर तर्कपूर्ण वाक्यालाप वास्तव में प्रणिधानयोग्य है । इस विशेषत्व को लक्ष्य करके उत्साहित होकर मैंने नैषधीय नवम-सर्ग का ओड़िआ छन्दोबद्ध पद्यानुवाद किया था । उसीसमय कवि-भर्त्तृहरि-प्रणीत ‘शृङ्गार-शतक’ काव्य का भी ओड़िआ पद्यानुवाद किया था । इन दोनों काव्यों के अनुवाद आपके सम्पादित प्रसिद्ध ‘बर्त्तिका’ मुखपत्र के दशहरा विशेषाङ्क द्वय में प्रकाशित हो चुके हैं । १९८१ में विद्यानगरी वाराणसी से विदाय लेकर आया था । अब उन पूर्वविषयों का स्मृतिचारण करने से अपने हृदय में बहुत आनन्द अनुभूत होता है । 

* प्रश्न (६):  अध्ययन-समाप्ति के बाद आपने ‘ओड़िशा शिक्षासेवा’ में योग दिया । सरकारी महाविद्यालयों में आपने अपनी अध्यापना से कई विद्यार्थियों को उपकृत किया है एवं अनुष्ठानों के प्रति आपका अवदान अविस्मरणीय रहा है । उनके बारे में कुछ प्रकाश डालेंगे ।
* उत्तर :  
    १९८१ नवम्बर में ‘ओड़िशा शिक्षासेवा’ (ओ.ई.एस्.) में नियुक्ति पाकर सर्वप्रथम योग दिया संस्कृत अध्यापक के रूप में बरगड़ के पञ्चायत महाविद्यालय में । तदनन्तर जनवरी १९८८ में फकीरमोहन महाविद्यालय, बालेश्वर को मेरा स्थानान्तरण हुआ । बहींसे जुलाई १९९२ में स्थानान्तरित होकर  भवानीपाटना के सरकारी महाविद्यालय में अवस्थापित हुआ । उधर दीर्घ वर्षों तक रहा । वहाँसे स्थानान्तरण होने के बाद अक्तूबर २०१२ में  सम्बलपुर के गङ्गाधर-मेहेर स्वयंशासित महाविद्यालय में योग दिया । सरकारी नियमानुसार दिनाङ्क ३१ मई २०१४ में ५८ वर्ष की उम्र में यहाँ सेवानिवृत्त हुआ । तत्कालीन नियमानुसार १९८६ से सीनियर अध्यापक की, १९९४ से रीडर की एवं १९९९ से सीनियर रीडर की पदवी में अवस्थापित हुआ । 
 
     समस्त महाविद्यालयों में छात्र-छात्राओं से मुझे बहुत श्रद्धा, आदर एवं सम्मान प्राप्त हुए । मैं अनुभव करता हूँ, कोई भी शिक्षक आन्तरिकता के साथ छात्रवर्ग और अनुष्ठान के लिये अच्छे कार्य करे, तो  निश्चितरूप से समाज में आदर प्राप्त होता है । बरगड़ में अवस्थान के समय अध्यापक डॉ. किशोरचन्द्र मिश्र, डॉ. गौराङ्ग-चरण दाश, डॉ. भरतचन्द्र नाथ आदि सहकर्मी बन्धुगण के साथ अनेक साहित्यिक चर्चा होती थी । ‘प्रतीची’ शीर्षक एक शोध-पत्रिका वहाँसे प्रकाशित होती थी । मेरे कुछ लेख वहाँ प्रकाशित हुए हैं । बरगड़ में अवस्थान के समय मैंने ‘तपस्विनी’ काव्य के हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद किये थे । 
  
    बालेश्वर को स्थानान्तरण होने के बाद मेरे सारस्वत लेखनादि विषय जानकर फकीरमोहन महाविद्यालय के मुखपत्र ‘फकीर’ की सम्पादनामण्डली में मुझे अन्तर्भुक्त किया गया । उस मुखपत्र में केवल ओड़िआ, अंग्रेजी और हिन्दी भाषा का स्वतन्त्र विभाग रहा था । वहाँ मेरे योगदान के बाद अपने उद्यम से विद्यार्थियों से संस्कृत लेखों का संग्रह करके मुखपत्र में मैंने प्रथम बार संस्कृतविभाग को अन्तर्भुक्त किया । उधर मेरे अवस्थान तक मैंने चार वार्षिक संख्याओं का सम्पादन किया । इसके बाद संस्कृतविभाग क्रमागत चल रहा होगा, मेरी आशा है । 

    बालेश्वर से स्थानान्तरित होकर १९९२ में भवानीपाटना के सरकारी महाविद्यालय में योग देने के बाद मुझे ज्ञात हुआ कि कलाहाण्डि जिला के इतने बड़े महाविद्यालय में स्नातक कक्षा में संस्कृत केवल ‘पास विषय’ रहा है,  ऑनर्स् नहीं है । भविष्य में विद्यार्थियों की हित-दृष्टि से विभागीय-मुख्य के रूप में व्यक्तिगत उद्यम किया ऑनर्स कक्षा खुलवाने के लिये । प्रोफेसर बेणुधर मिश्र महोदय अध्यक्ष थे । इस विषय पर आनुष्ठानिक पदक्षेप लेने के लिये उनसे आवेदन एवं अनुरोध किया । वे उत्साहित होकर सरकारी स्तर पर शीघ्र मञ्जूर कराने में सफल हुए । संस्कृत ऑनर्स के साथ स्नातकोत्तर अंग्रेजी एवं वाणिज्य ऑनर्स कक्षा प्रारम्भ हेतु आदेश आया । उसी समय संस्कृत-विभाग में मैं अकेला अध्यापक था । ऑनर्स कक्षा में अध्यापना के लिये मैं लिखित रूप से सम्मति देनेके बाद ही महाविद्यालय में कक्षा खुली । विद्यार्थीगण ऑनर्स पढ़कर उपकृत हुए । अनेक विद्यार्थियों ने स्नातक संस्कृत-ऑनर्स उत्तीर्ण होकर विभिन्न हाईस्कूलों में क्लासिकल् शिक्षक के रूप में नियुक्ति-सुयोग प्राप्त किया । मेरे विद्यार्थीगण जब मुझसे मिलते हैं तो इस बात की याद दिलाते हैं । यह जानकर मन बहुत आनन्दित होता है । 
 
   भवानीपाटना के सरकारी महाविद्यालय में दीर्घ वर्षों तक महाविद्यालय-मुखपत्र ‘कान्तारक’ का मुख्य सम्पादक रहा । वहाँ प्रकाशित गवेषणात्मक अंग्रेजी मुखपत्र ‘कलाहाण्डि रेनेसाँ’ की सम्पादना-मण्डली में भी मैंने विशेष भूमिका निभायी । भवानीपाटना में अवस्थान के समय मैंने २००७ में आयोजित ‘कलाहाण्डि-उत्सव’ की स्मरणिका ‘कलाझरण’ मुखपत्र के मुख्यसम्पादक का दायित्व निर्वाह किया था । महाविद्यालय के पूर्व-छात्रावास एवं छात्री-निवास में कुछ काल तक तत्त्वावधारक के रूप में अवस्थापित हुआ था । इस स्वयंशासित महाविद्यालय के विभिन्न उत्सवों के सांगीतिक कार्यक्रमों में मुझे विशेष दायित्व दिया जाता था । इस दिशा में विद्यार्थियों के प्रति मेरे आन्तरिक उत्साह एवं गीत सिखाना आदि कार्य अभिनन्दनीय थे । फलस्वरूप मेरे उद्यम सर्वदा साफल्य-मण्डित रहे । 
  
     सम्बलपुर आगमन के बाद गङ्गाधर-मेहेर स्वयंशासित महाविद्यालय के मुखपत्र  ‘अर्घ्यथाली’ की सम्पादना-मण्डली में मुझे शामिल किया गया । मेरी शिक्षा-सेवा के अन्तिम वर्ष में इस मुखपत्र के मुख्य-सम्पादक के रूप में मुझे दायित्व प्रदान किया गया और मैंने सक्रिय रूप से इस कार्य का निर्वाह किया ।  इस महाविद्यालय में संस्कृत विषय में स्नातक कक्षा से आरम्भ करके स्नातकोत्तर, एम्.फिल्., एवं पीएच्.डी. कक्षा भी हैं । विद्यार्थियों की संख्या बहुत है । इसलिये कार्यभार भी बहुत ज्यादा है । यहाँ योग देने के पश्चात् विभागीय-मुख्य के रूप में अवस्थापित होकर मैंने सभी आनुष्ठानिक कार्यों का आन्तरिकता के साथ  सम्पादन किया है । अध्यापकों के अभाव के कारण विशेषरूप से  एम्.फिल्. एवं पीएच्.डी. विद्यार्थियों के कोर्स-वॉर्क आदि समस्त कार्य मुझे अकेला ही करना पड़ा । दो वर्षों में ८८ एम्.ए. विद्यार्थियों के स्वतन्त्र गवेषणा-पत्र के तत्त्वावधारक के रूप में कार्य किया । १४ एम्.फिल्. विद्यार्थियों को मेरे तत्त्वावधान में गवेषणा-निबन्ध उपस्थापन-पूर्वक उपाधि प्राप्त हुई । मैंने अपने कार्यकाल में गवेषणा के प्रति विशेष गुरुत्व दिया है एवं मेरे तत्त्वावधान में पाँच विद्यार्थी पञ्जीकृत होकर पीएच्.डी. शोधकार्य कर रहे हैं । 

    संस्कृत-प्रोफेसर डॉ. सुलोकसुन्दर महान्ति महोदय जब इस महाविद्यालय के अध्यक्ष रहे, उसी समय उनके उद्यम से स्नातकोत्तर संस्कृतविभाग की शोध-पत्रिका ‘श्रद्धा’ की दो संख्यायें प्रकाशित हुई थीं । उनकी सेवा-निवृत्ति के पश्चात् उद्यम के अभाव के कारण बीच में इसका प्रकाशन बन्द हो गया था । मेरे योग देने के बाद मैंने उसे उज्जीवित कराया और अपनी चेष्टा से भारत के विभिन्न विद्वान् गवेषकों से लेख संग्रह किये । सुख की बात है, मेरे आवेदन के फलस्वरूप अल्प कुछ दिनों में इस शोध-मुखपत्र की आन्तर्जातिक मानक क्रमिक संख्या (आइ.एस्.एस्.एन्.) प्राप्त हुई । व्यक्तिगत-रूप से बहुपरिश्रम करके २०१२ और २०१३ वर्ष के लिये एक संयुक्ताङ्क प्रकाशित कराने में समर्थ हुआ । मेरे कार्यकाल के एक शोभनीय गौरवमय स्मारक रूप में यह संस्कृतविभाग एवं समग्र महाविद्यालय के लिये आदरभाजन रहा है । बहुत खुशी का विषय है कि यह स्वयंशासित महाविद्यालय २०१५ से विश्वविद्यालय के रूप में मान्यताप्राप्त है ।  

* प्रश्न (७) : बालेश्वर में अध्यापना और अवस्थान काल में आपकी अनुभूति किसप्रकार रही, कुछ कहेंगे ।
* उत्तर : 
     बरगड़ से जनवरी १९८८ में बालेश्वर-स्थित फकीरमोहन महाविद्यालय को मेरा स्थानान्तरण हुआ । बालेश्वर में योग देकर व्यासकवि फकीरमोहन सेनापति के अपने स्थान से कुछ अभिज्ञता प्राप्त करोगे – ऐसा कहकर पिताजी ने मुझे बहुत उत्साहित किया । मैंने पत्नी, कन्या और दो बच्चों को साथ लेकर बालेश्वर में रहा । अपने गाँव से बहुत दूर रास्ता लगभग ७३० किलोमीटर । उसी समय यातायात के लिये रास्ते की असुविधा थी ।  फिर भी शहर से बस् के माध्यम से बालेश्वर जाना पड़ता था । गाँव से वहाँ तक पहुँचने प्राय दो दिन समय लग जाता था ।  

    बालेश्वर के बारबाटी अञ्चल में एक यन्त्री के किराये घर में सपरिवार रहता था । पड़ोशी रूप में  सहकर्मी अग्रज बन्धु राजनीतिविज्ञान के अध्यापक श्यामचरण महान्ति और ओड़िआ अध्यापक डॉ. हरिश्चन्द्र बेहेरा  सपरिवार रहते थे । वहाँ अध्ययन, अध्यापन और पारिपार्श्विक परिवेश बहुत उत्साहप्रद था । साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अनुष्ठानों के साथ मैं सम्पृक्त हुआ । फकीरमोहन साहित्य परिषद के तत्कालीन सम्पादक श्रीयुक्त पञ्चानन दाश ने मुझे आग्रह से परिषद के सदस्य रूप में ले लिया । विभिन्न सभासमितियों में मैं सक्रिय अंशग्रहण करता था । व्यासकवि फकीरमोहन के जीवन के अंग-स्वरूप  शान्तिकानन आदि अनेक दर्शनीय स्थलों के साथ परिचित होने का सौभाग्य मिला । महाविद्यालय में उत्तम अध्यापना और आचरण हेतु मेरे प्रति विद्यार्थियों का बहुत सम्मानादर था । सहकर्मियों एवं साहित्यिक मित्रों के परिसर में भी मैं प्रियभाजन रहा । 

      महाविद्यालय में सम्मानास्पद अध्यापक डॉ. प्रह्लादचरण महान्ति, श्रीयुक्त भागीरथि नायक, श्रीयुक्त भागिरथि बिश्वाल, डॉ. हरिश्चन्द्र बेहेरा, डॉ. हरिश्चन्द्र बारिक आदि सहकर्मियों के साथ साहित्यादि विविध चर्चाओं में बहुत आनन्द मिलता था । समयक्रम से संस्कृत विभाग में आये मुख्य अध्यापक श्रीयुक्त रामचन्द्र त्रिपाठी महोदय एवं अध्यापिका बासन्ती मिश्र महोदया । उनकी आन्तरिक सस्नेह-श्रद्धा मेरे लिये सदा स्मरणीय रहेगी । समयानुसार संस्कृत विभाग की ओर से आयोजित वनभोज और परिभ्रमण में मिलकर ढेंकानाल के कपिलास, फिर केन्दुझर के सान-घाघरा और बड़-घाघरा आदि स्थलों में भ्रमण के साथ बहुत खुशी मिली है । बालेश्वर में अवस्थान के समय बारिपदा के प्रसिद्ध रथयात्रा-महोत्सव सपरिवार दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । इस अवसर पर बारिपदा की अनुजा-प्रतिमा संस्कृत अध्यापिका सुजाता दास के गृह में हम दो दिन रहे थे । वहाँ अम्बिकादेवी-मन्दिर दर्शन करके धन्य हुए हैं । 

    महाविद्यालय में संस्कृत विभाग के पक्ष से एकबार महामुनि-द्वैपायन-विषयक एक यूजीसी. सेमिनार का आयोजन हुआ था । इसमें संस्कृत प्रोफेसर डॉ. हरेकृष्ण शतपथी महोदय निमन्त्रित अतिथि होकर पधारे थे । मुझे स्पष्ट स्मरण हो रहा है, मेरा एक मौलिक और निजस्व स्वर-संयोजित संस्कृत गीत ‘मातृगीतिका’ (जयतु जननी…) प्रारम्भिक गीत के रूप में चर्चित हुआ था । संस्कृत ऑनर्स कक्षा की छात्राओं ने इस गीत का सुन्दर गायन किया था एवं इसमें वाद्ययन्त्रादि में सहयोगिता की थी सङ्गीतज्ञ श्रीयुक्त अंशुमान् पटनायक ने । 
 
    बालेश्वर के वरेण्य कवि ब्रजनाथ रथ महोदय के साथ अनेक समय भेंट होती थी, कई सभासमितियों में और उनके बिश्वश्री प्रेस में भी । बन्धुओं के साथ साहित्य-चर्चा भी होती थी । एकबार मेरे निवास में एक म्युजिक् ऑर्केस्ट्रा बुलाकर मेरे कुछ मौलिक संस्कृत गीतों से साथ भज गोविन्दम्, मधुराष्टकम्, शिवताण्डव-स्तोत्रम् आदि का ध्वनि-मुद्रण कराया था मेरे कण्ठ से । अब भी वह स्मारक के रूप में है । 

    वैसे तो और भी कई अनुभूतियाँ हैं । तो और एक घटना के बारे में कहूँगा । उसी समय ‘समाज’ समाचार-पत्र में मेरे संस्कृत-विषयक अनेक दीर्घ लेख प्रकाशित हुए थे । यह देखकर मुझे एक वयस्क ब्यक्ति समझकर नूआपाढ़ी हाईस्कूल के वार्षिक उत्सव में मुख्यवक्ता के रूप में मुझे निमन्त्रण दिया था सम्पृक्त आयोजक कर्मकर्त्ताओं ने । यह बात बाद में ज्ञात हुई । मुझसे महाविद्यालय के अध्यापक-प्रकोष्ठ में मिलकर अनुरोध किया था । मैंने पहले कहा - अन्य किसी वयस्क अध्यापक को बुला लीजिये । परन्तु वे मुझे ही साथ लेने दृढ़मना थे । इसलिये उनकी सभा में यथासमय उपस्थित होनेके लिये मैंने सम्मति प्रदान की । उनकी गुणग्राहिता स्मरणीय रहेगी । आयोजित उत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में मञ्चासीन थे तत्कालीन मान्यवर शिक्षामन्त्री तथा साहित्यिक श्रीयुक्त यदुनाथ दाश महापात्र महोदय । सभी के वक्तव्यों में संस्कृत की गौरवमय परम्परा, ऐतिह्य एवं भारतीय संस्कृति के विषय पर बहुत आकर्षणीय रूप में चर्चा हुई । अब भी ये सारी बातें जब याद आती हैं, तो अत्यन्त आनन्द अनुभूत होता है । 

    समुद्र के निकटवर्त्ती होने के कारण बालेश्वर का जलवायु प्राय लवणाक्त रहता है । इस परिवेश में मेरे परिवार के सभी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता था । वहाँके एक अध्यापक ने स्वयं उद्यम करके बालेश्वर को मेरे विपक्ष में स्थानान्तरित होकर आये । फलस्वरूप भवानीपाटना सरकारी महाविद्यालय को मेरा स्थानान्तरण हो गया । 
     
* प्रश्न (८):  आप ओड़िआ, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत एवं कोशली, इन पाँच भाषाओं में लिखते हैं । लेखन-कार्य में आप अपनेको किस दृष्टि से विचार करते हैं ? केवल लेखक के रूप में या और कुछ ?
* उत्तर : 
     मौलिक हो या अनुवाद हो, जो कुछ भी लिखता हूँ, सभीमें तीन रूप लेकर मैं अपनेको देखता हूँ । लेखक, पाठक एवं समीक्षक रूप में । पहले कुछ लिखने के बाद मैं अपनेको सामान्य पाठक के रूप में विचार करके उसे पाठ करता हूँ । इसके पश्चात् लेख अच्छा हुआ है या नहीं, समीक्षक के रूप में उसका विचार करता हूँ । आवश्यकता हो तो लेख में कुछ परिवर्त्तन करता हूँ । 

* प्रश्न (९):  आप एक सफल अनुवादक भी हैं । अनुवाद के बारे में आपका क्या मत है ? मौलिक एवं अनुवाद लेख, उभय क्षेत्रों में आप कैसा अनुभव करते हैं ? अपनी अनुभूतियों से कुछ कहेंगे ।
* उत्तर :  
     किसी एक मूलभाषा के लेख या कथन को अन्य भाषा में रूपान्तरित करना अनुवाद होता है । यह प्राय सभी जानते हैं । साहित्य-क्षेत्र में गद्य हो या पद्य हो, काव्यगुण का विचार करके उसे आक्षरिक अनुवाद, भावानुवाद, अनुसृष्टि या अनुसृजन आदि अनेक पर्यायभुक्त किया जा सकता है । अनुवाद का अत्यन्त विश्वस्त होना आवश्यक है । यह विषय विचार-सापेक्ष है । कई लोग सोचते हैं कि अनुवाद एक सरल प्रक्रिया है । परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । अनुवाद के माध्यम से विश्व के विविध भाषा-साहित्यों का परस्पर सम्बन्ध रहा है । अनुवाद के बिना किसी एक भाषा के कथन को अन्यभाषा-भाषी नहीं जान सकते । इसलिये विश्वसाहित्य में अनुवाद की विशेष गुरुत्वपूर्ण भूमिका रही है । 

     मेरे मत में अनुवाद एक विशिष्ट कला है । इसे ईश्वर-दत्त एक प्रतिभा भी कहा जा सकता है । उदाहरण-स्वरूप, किसी एक लेख को कई व्यक्ति भिन्न-भिन्न रूप से अनुवाद कर सकते हैं । हर व्यक्ति की भाषा और शैली भिन्न-भिन्न हो सकती हैं । किसका अनुवाद साहित्यिक-गुण-विचार से कितना विश्वस्त, महत्त्वपूर्ण और सफल है, यह समीक्षा का विषय है । सहृदय पाठकवर्ग ही वास्तव में इसके विचारक हैं । मूल-भाषा एवं लक्ष्य-भाषा, उभय क्षेत्रों में अनुवादक का आवश्यक साहित्यिक ज्ञान होना आवश्यक है और यथार्थ रूपान्तरण के लिये उपयुक्त दक्षता रहना भी आवश्यक है । भावानुसार उपयुक्त शब्द या भाषा का प्रयोग किया जाये, तो वह अनुवाद पाठक व श्रोता का हृदयस्पर्शी बन सकता है । 

   मौलिक लेख लिखने में स्वाधीनरूप से कुछ भी शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है । इसमें कोई प्रतिबन्धक नहीं रहता । परन्तु अनुवाद में मूल लेख को रूपान्तरित करने के लिये आवश्यक शब्दावली निर्दिष्ट सीमा के भीतर आबद्ध होकर रह जाती है । इसका उपयुक्त प्रयोग अनुवादक की प्रतिभा पर निर्भर करता है । कभी-कभी आवश्यक शब्दों के आन्तरिक आलोड़न के कारण अनुवाद में प्रतिबन्धक ज्ञात नहीं होता एवं अनुवाद ऐसा भावपूर्ण हो जाता है कि मौलिक लेख-जैसा अनुभूत होता है । 
        
* प्रश्न (१०):  आपके अनुवाद का कुछ विशेषत्व है क्या ? थोड़े उदाहरण के साथ सूचना दीजियेगा ।
* उत्तर :  
     अनुवाद गीतिमय छन्दोबद्ध हो या मुक्तछन्दोबद्ध हो, मेरे अनुवाद का विशेषत्व है मूल-भाषा के भावों को विश्वस्त-रूप से सम्पूर्ण अक्षुण्ण रखकर मूल-शब्दों के साथ अपनी मौलिक शब्दावली में उसे उपस्थापित करना । इसमें आक्षरिकता के महत्त्व होने पर भी इसे भावानुवाद कह सकते हैं । सर्वत्र प्रयोजनानुसार मूल शब्दों का ग्रहण करता हूँ । उदाहरण-स्वरूप, कुछ शब्दों की उद्धृति देता हूँ स्वभावकवि गङ्गाधर मेहेर के ‘तपस्विनी’ महाकाव्य के चतुर्थ सर्ग से : ‘मङ्गळे अइला उषा, विकच-राजीव-दृशा ।’ मेरे हिन्दी अनुवाद में : ‘समंगल आई सुन्दरी, प्रफुल्ल-नीरज-नयना उषा ।’ संस्कृत अनुवाद में : ‘मङ्गलं समागता सौम्याङ्गना, उषा व्याकोषारविन्द-लोचना ।’ दूसरा एक अंश : ‘कलकण्ठ-कण्ठे कहिला, दरशन दिअ सति ! राति पाहिला ।’ इसका भाषान्तर मेरे हिन्दी अनुवाद में : ‘बोली कोकिल-स्वर में, दर्शन दो सति अरी ! बीती विभावरी ।’ और संस्कृत अनुवाद में : ‘अभाषत कोकिल-कण्ठ-स्वना सूनरी, दर्शनं देहि सति ! प्रभाता विभावरी ।’ अंग्रेजी में तो भारत की प्रान्तीय भाषाओं से भिन्न रूप है । इसलिये अनुवाद में अपने द्वारा प्रयुक्त अंग्रेजी-शब्दावली निश्चितरूप से भिन्न रहेगी । 

    कवि भर्त्तृहरि के ‘नीति-शतक’ काव्य से एक पद्य । मूल संस्कृत-श्लोक है : ‘दुर्जनः परिहर्त्तव्यो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयङ्करः ॥’ इस श्लोक का मदीय ओड़िआ पद्यानुवाद इसप्रकार है : ‘य़ेते विद्यारे भूषित हेलेबि दुर्जन, उचित अटइ करिबा ताहारे बर्जन । मणि-मण्डित हेले निकर, सर्प नुहे कि भयङ्कर ॥’  व्यवहृत शब्द-संयोजना से अनुवाद की विशेषता को हृदयङ्गम किया जा सकता है ।      
   
* प्रश्न (११):  आप में संगीत-कला भी है । ओड़िआ, हिन्दी, संस्कृत एवं कोशली में आपने कई गीतों की  रचना की है ।  विशेषरूप से आधुनिक संस्कृत साहित्य में आप एक सुपरिचित विशिष्ट गीतिकार हैं । अपने द्वारा और अन्य द्वारा रचित गीतों की स्वर-रचना भी करते हैं । इसके बारे में कुछ कहेंगे । 
* उत्तर :  
     कवि-जननी वाग्‍देवी के आशीर्वाद से थोड़ी-सी संगीत-कला मुझमें है । उसका उपयुक्त विनियोग करना चाहता हूँ । उत्तरप्रदेश, हाथरस से प्रकाशित ‘संगीत’ पत्रिका में मेरे कई मौलिक संस्कृत और हिन्दी गीत स्थानित हुए हैं । कुछ गीत अपनी स्वरलिपि सहित भी प्रकाशित हुए हैं । इनके अतिरिक्त मेरे मौलिक आधुनिक संस्कृत गीतिकाव्य ‘मातृगीतिकाञ्जलिः’ एवं ‘पुष्पाञ्जलि-विचित्रा’ सङ्कलन में विविध रुचियों के  गीत सन्निवेशित हैं । उनकी स्वर-रचना भी मेरे द्वारा प्रस्तुत अपनी है । अन्य कवियों के प्रणीत कुछ संस्कृत श्लोकों एवं गीतों की स्वर-रचना भी मैंने की है । जैसे, शिवताण्डव-स्तोत्रम्, जगन्नाथाष्टकम्, मधुराष्टकम्, भज गोविन्दम्, अर्द्धनारीश्वर-स्तोत्रम्, भवान्यष्टकम्, गीतगोविन्द के अन्तर्गत दशावतार-स्तोत्रम् और अन्यान्य कुछ गीत । 
   सङ्गीत एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है । बाल्यकाल से इसके प्रति मेरा आकर्षण रहा है । मैंने कुछ सङ्गीतशास्त्रों का अध्ययन किया है । सङ्गीत के व्याकरणादि को जानने हेतु विशारद श्रेणी तक पाठ भी पढ़ा है । मैंने हिन्दी, ओड़िआ और कोशली में भी कई गीत लिखे हैं, उनकी स्वर-रचना भी की है । सांसारिक जीवन में सङ्गीत की व्यावहारिकता ही महत्त्वपूर्ण है । अभी अपने पास हारमोनियम और केसियो हैं । समयानुसार इनका उपयोग करता हूँ । 

    भवानीपाटना सरकारी महाविद्यालय में रहते समय विभिन्न उत्सवों के उपलक्ष्य में छात्र-छात्राओं को अनेक गीत सिखाता था । महाविद्यालय के रङ्ग-मञ्च पर उनका परिवेषण हुआ और वे विशेष आदृत भी हुए थे । अन्तर्जाल पर यू-ट्यूब् में मेरे प्रस्तुत कुछ गीत स्थानित हैं । स्वान्तःसुखाय अपने कण्ठ से कभी-कभी गायन करता हूँ । उपयुक्त साङ्गीतिक परिवेश और सामग्री के अभाव के कारण मेरे लिखित कई गीतों की  प्रस्तुति नहीं हो पायी है । अन्य किसी सङ्गीत अनुष्ठान या सङ्गीत-गोष्ठी के साथ मिलकर कार्य करने से सम्भव हो सकता है । 
      
* प्रश्न (१२):  आप अपनी रचनावली में संस्कृत के प्रचलित विभिन्न छन्दों का प्रयोग करते हैं । कुछ नूतन छन्दों की सर्जना भी आपने की है । यह आपकी मौलिक प्रतिभा का परिचायक है । इस विषय के बारे में हमें कुछ अवगत करायेंगे ।  
* उत्तर :  
     मेरी संस्कृत रचनावली में  पारम्परिक प्रचलित अनुष्टुप्, वंशस्थ, मालिनी, वसन्ततिलक, उपजाति आदि कई छन्दों का मैंने प्रयोग किया है । इसके अतिरिक्त मेरा विशेषत्व है कुछ नव्य गीतिमय छन्दों की  उद्‍भावना और उनका प्रयोग । विशेषरूप से यह है मात्राछन्दोबद्ध गीतिमय रचना । परम्परा के आधार पर यह पूर्णरूप से नूतन एवं मौलिक सर्जना है, जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं । ‘मातृगीतिकाञ्जलिः’ और ‘पुष्पाञ्जलि-विचित्रा’ आदि मेरे संस्कृत काव्यों में इन निजस्व मात्रिक गीतिमय छन्दों का प्रयोग किया है । इस विषय में मेरा स्पष्ट वक्तव्य भी उपस्थापित है ‘मातृगीतिकाञ्जलिः’ काव्य के ‘प्रास्ताविकम्’ में : ‘अनुसृत्य परम्पराम्, मात्राच्छन्दोभि-र्मौलिकैः स्वोद्‍भावितैः कृता मया । गीतिकावली सुतराम्, प्रसाद-गुण-सम्पन्ना श्रद्धाबद्धा सदाशया ॥’ 
    मेरे संस्कृत गीतों का अनुध्यान करने से मौलिक मात्रिक छन्दों का विषय पहचाना जा सकता है । मुक्तछन्द में भी मेरा कुछ विशेषत्व रहा है । इसमें व्यवधान-सहित और व्यवधान-रहित अन्त्यानुप्रास तथा उपधा-मिलन की संयोजना का अनुभव किया जा सकता है । मेरी कृति ‘मेहेरीय-छन्दोमाला’ में इन छन्दों के बारे में चर्चा सङ्कलित है ।   

* प्रश्न (१३) :  आकाशवाणी एवं दूरदर्शन आदि में आपके अनेक लेख और गीत प्रसारित हुए हैं । इनके बारे में कुछ कहेंगे । 
* उत्तर :  
      भवानीपाटना और सम्बलपुर आकाशावाणी से मेरे विविध रुचियों के लेख मेरे मुख से ध्वनि-मुद्रित और प्रसारित हुए हैं । २००३ में भवानीपाटना में आयोजित बहुभाषी कवि-सम्मेलन में परिवेषित मेरी ‘देश-गीतिका’ (भारतमाता परम-नमस्या विजयते) एवं २००४ में कलाहाण्डि-उत्सव के कवि-सम्मेलन में परिवेषित मेरी ‘संस्कृति-गीतिका’ (विजयतेतराम् ओंकार-भारती) स्थानीय चैनल् से प्रसारित हुई थी । २००४ में मेरा संस्कृत गीत ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ कलाहाण्डि-लेखक-कला परिषद के गायक-गायिका-वृन्द के कण्ठ से जातीय ओड़िआ दूरदर्शन चैनेल् से सीधा प्रसारित हुआ था । २०१२ और २०१३ में ‘माटि माआर् बासना’, ‘रथ-जातरा’, ‘दशरा आएला रे’ आदि  मेरे कोशली गीतों का ओड़िआ दूरदर्शन से प्रसारण हुआ था । २००८ अगस्त मास में भुवनेश्वर दूरदर्शन से मुझे आमन्त्रित किया गया था कवि गङ्गाधर मेहेर के काव्यों पर हिन्दी में चर्चा के लिये । यह प्रस्तुति ‘उत्कल भारती’ हिन्दी कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्तर पर एकाधिक बार प्रसारित हुई है । 
  
    मेरा संस्कृत गीत ‘नववर्ष-गीतिका’, जो ‘संगीत’-पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, मध्यप्रदेश के लोकप्रिय संगीतज्ञ पण्डित एच्. हरेन्द्र जोशीजी की स्वर-रचना और निर्देशना से वृन्दगान के रूप में प्रस्तुत वीडियो, मध्यप्रदेश के रतलाम और जावरा शहर के स्थानीय चैनेल् से १९९९ में प्रसारित हुआ था । यह समाचार उसीसमय ‘जागरण’ आदि हिन्दी समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुआ था । अन्तर्जाल में स्थानित मेरी परिचय-पत्रिका में ये सारे तथ्य सन्निवेशित हैं । 
  
* प्रश्न (१४) :  दिल्ली के राष्ट्रीय  डी.डी. न्यूज् चैनेल् की संस्कृत-पत्रिका ‘वार्त्तावली’ में आपके विभिन्न संस्कृत गीत प्रसारित हुए हैं । इनमें हिन्दी चलचित्र-गीतों के संस्कृत अनुवाद एवं मौलिक गीत भी अन्तर्भुक्त हैं । इस विषय पर कुछ सूचना देंगे ।
* उत्तर :  
     दिल्ली के जातीय डी.डी. न्यूज् चैनेल् की संस्कृत पत्रिका ‘वार्तावली’ में प्रसारित एक अंश है हिन्दी चलचित्र-गीत के संस्कृतानुवाद की प्रतियोगिता । यह कार्यक्रम संस्कृत के आधुनिक प्रसार के लिये एक उत्साहदायक पदक्षेप है । पत्रिका की सम्पादक-मण्डली द्वारा उनकी पसन्दमें आये निर्दिष्ट एक हिन्दी गीत के मूल-स्वरानुसार गायनानुकूल संस्कृतानुवाद करने हेतु घोषणा की जाती है । प्रतियोगिता में जो विजेता होता या होती हैं, उनके फोटो सहित संस्कृतानूदित गीत अन्य गायक या गायिका के कण्ठस्वर से परिवेषित और प्रसारित करते हैं । इस क्षेत्र में मेरे कुछ संस्कृतानूदित हिन्दी-चलचित्र-गीत निर्वाचित होकर विजेता रूप में सचित्र प्रसारित हुए हैं और विशेष प्रियभाजन भी बने हैं । जहाँ तक मुझे ज्ञात है, मैं ओड़िशाप्रदेश का प्रथम विजेता व्यक्ति हूँ ।  यह निश्चितरूप से हमारे लिये गौरव का विषय है । 

    घोषणा में प्रतियोगिता हेतु आमन्त्रित सभी गीतों में मैं अंशग्रहण नहीं करता । जो गीत मुझे रुचिकर अच्छा लगता है, उसमें प्राय मैं भाग लेता हूँ । प्रसारित गीत डी.डी.न्यूज् चैनेल् द्वारा सर्वसाधारण की अवगति के लिये यू-ट्यूब् र स्थानित हैं । मेरे अपने स्वतन्त्र यू-ट्यूब् एकाउण्ट (चैनेल्) में भी मेरे प्रस्तुत वीडियो आदि स्थानित हैं । निर्वाचित और प्रसारित गीतों में से ‘शोर’ चलचित्र के सुप्रसिद्ध ‘एक प्यार का नगमा है’ गीत का मदीय संस्कृतानुवाद ‘एकं प्रणय-गीतम्’ यू-ट्यूब् में बहुजनादृत और प्रशंसित हुआ है । इस संस्कृत गीत का सुमधुर कण्ठ में परिवेषण किया है महाराष्ट्र की विदुषी गायिका श्रीमती सरिता भावे महोदया ने । 

     निकट अतीत में १५ अगष्ट २०१७ में डी.डी. न्यूज् ‘वार्तावली’ की ओर से स्वतन्त्रता-दिवस विशेषाङ्क प्रसारित हुआ था । संस्कृत गीत कार्यक्रम में कर्णाटक के प्रसिद्ध कवि-लेखक श्रीयुक्त जनार्दन हेगड़े के और मेरे संस्कृत गीत के कुछ अंश अन्तर्भुक्त थे । मेरे मौलिक संस्कृत गीत ‘मातृगीतिका’ (जयतु जननी…) के कुछ अंश श्रीमान् कुलदीप जोशी के संगीत और गायन से इसमें परिवेषित हुआ था । सम्पृक्त वीडियो के प्रस्तुति-क्रम में इस विषय की सूचना मुझे दी गई थी और बाद में गीत प्रसारित हुआ था । यह बहुत आनन्द की बात है कि भारत में इतने कवियों के बीच मेरे एक गीत को चैनेल् की ओर से एक विशेष राष्ट्रीय कार्यक्रम में सन्निवेशित किया गया । मेरा यह गीत केन्द्र साहित्य अकादेमी, दिल्ली की संस्कृत पत्रिका ‘संस्कृत-प्रतिभा’ में १९९० में प्रकाशित हुआ था । बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि उसे देखकर इस गीत का चयन किया गया था ।        

* प्रश्न (१५) :  संस्कृत के आधुनिकीकरण एवं सरलीकरण पर आपने गुरुत्व दिया है और इसके प्रति आपकी देन भी रही है । आधुनिक समाज में संस्कृत की लोकप्रियता के बारे में कुछ अवगत करायेंगे ।
* उत्तर :  
     आधुनिकीकरण और सरलीकरण के बारे में मेरे अनेक गवेषणात्मक लेख भारत की विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, संगोष्ठियों में पठित और आदृत भी हुए हैं । कुछ रक्षणशील लोग इसे भले  ही पसन्द न करें, परन्तु संस्कृत को आधुनिक युगोपयोगी कराने के लिये एक सारस्वत साधक होने के नाते  मैं निरन्तर प्रयासरत हूँ । मेरे गीतिकाव्यों के अन्तर्गत गीत आधुनिक-रुचि-सम्पन्न, अपने मौलिक छन्दों में रागबद्ध एवं स्वयं की परिवेषण-शैली में प्रस्तुत किये गये हैं । ये गीत अग्रगण्य कवि-साहित्यिकों द्वारा अभिनन्दित और समादृत हैं । सरल, सुबोध शब्दावली में गीत या लेख प्रस्तुत करने से सबके लिये बोधगम्य और हृदयग्राह्य होता है । भारत के विभिन्न भाषा-साहित्यों की भाँति आधुनिक संस्कृत साहित्य की विशेष अग्रगति हो रही है । आधुनिक वैज्ञानिक युग में अन्तर्जाल और कम्प्युटर इसलिये बहुत सहायक हुए हैं । आकाशवाणी और दूरदर्शन आदि से तथा विविध मुद्रित एवं आन्तर्जालिक पत्रपत्रिकाओं के माध्यम से भाषाजननी संस्कृत का बहुल प्रसार-प्रचार चल रहा है । भारतीय संस्कृति के साथ संस्कृत का अन्तरङ्ग गभीर सम्बन्ध रहा हैं । अनेक बाधा-विघ्नों के आने पर भी संस्कृत एक अमृत-भाषा है एवं कालजयी भाषा भी । 
  
* प्रश्न (१६) :  आपकी संस्कृत रचनावली, विशेषरूप से आधुनिक नव्य संस्कृत गीतों के बारे में भारत के कई प्रतिष्ठित कवि, समीक्षक एवं समालोचक विद्वानों ने सकारात्मक मत और मन्तव्य देकर आपको प्रशंसित किया है । इस विषय पर कुछ सूचना देंगे ।  
* उत्तर : 
     मेरे आधुनिक गीतिकाव्य ‘मातृगीतिकाञ्जलिः’ में ‘अभिमत’ लिखा है आधुनिक संस्कृत साहित्य के अग्रगण्य प्रख्यात गीतिकवि प्रोफेसर श्रीनिवास रथ महोदय ने, जो विक्रम-विश्वविद्यालय, उज्जयिनी में संस्कृत-विभागाध्यक्ष एवं कालिदास अकादमी के निर्देशक थे । इसमें ‘भूमिका’ लिखी है प्रोफेसर अभिराज राजेन्द्र मिश्र महोदय ने, जो हैं सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के पूर्वतन कुलपति, आधुनिक संस्कृतसाहित्य के बहुमुखी-प्रतिभा-सम्पन्न कवि, समीक्षक, ‘अभिराज-यशोभूषणम्’ आदि नव्य-साहित्यशास्त्र के रचयिता एवं नव्यमार्ग के दिग्‍दर्शक । संस्कृत के ज्ञानपीठ-पुरस्कार-विजेता सम्मानास्पद प्रोफेसर सत्यव्रत शास्त्री, आधुनिक कवि आचार्य इच्छाराम द्विवेदी, प्रसिद्ध गीतिकवि आचार्य रमाकान्त शुक्ल, साम्प्रतिक नव्यरुचि-सम्पन्न लेखक बहुभाषी कवि डॉ. हर्षदेव माधव, आधुनिक कवि-समीक्षक डॉ. बनमाली बिश्वाल आदि अनेक विद्वान् सारस्वत-साधकों ने मेरे मौलिक नव्य गीतिकविताओं के बारे में बहुप्रेरणाप्रद और प्रशंसापरक मन्तव्य दिये हैं । यह मेरे लिये परम सौभाग्य का विषय है । इसके अतिरिक्त विभिन्न शोध-प्रबन्धों में मेरी कविताओं का विशेषत्व समीक्षकों के द्वारा परिवेषित और प्रशंसित हुआ है ।
  
* प्रश्न (१७) :  आपने विभिन्न संस्कृत संगोष्ठियों, राष्ट्रीय तथा अन्ताराष्ट्रीय सम्मेलनों में सक्रिय अंशग्रहण  किया है । इस के बारे में कुछ जानकारी देंगे  ।
* उत्तर :  
      भिन्न-भिन्न समय में सुविधानुसार मैंने अनेक प्रादेशिक, राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं व्याख्यान-चक्र, सर्वभारतीय प्राच्य सम्मेलन आदि में निबन्ध परिवेषण सहित सक्रिय अंशग्रहण किया है । १९९७ में बैङ्गलुरु में और २००१ में दिल्ली में आयोजित विश्वसंस्कृत-सम्मेलन में नव्य-तथ्य-संवलित शोध-निबन्धों की उपस्थापना की है । इसके अतिरिक्त अनेक ओड़िआ सम्मेलनों और संगोष्ठियों में अंशग्रहण किया है ।  मार्च २०११ में उत्कल विश्वविद्यालय, वाणीविहार, भुवनेश्वर में अनुष्ठित आन्तर्जातीय संस्कृत सम्मेलन के एक अधिवेशन में मुझे अध्यक्ष-पद में मञ्चासीन होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है । २००८ में दिल्ली-स्थित ओड़िशी अकादमी द्वारा अनुष्ठित ‘जयदेव-उत्सव’ में केन्द्र साहित्य अकादमी द्वारा परिचालित संगोष्ठी में मैंने कवि-जयदेव-प्रणीत गीतगोविन्द काव्य पर प्रस्तुत शोध-निबन्ध परिवेषण किया था । इसमें मुझे स्व-नामाङ्कित फलक अर्पण  के साथ ‘एवार्ड् ऑफ् एप्रिसिएशन्’ से सम्मानित किया गया था ।

* प्रश्न (१८) :  अनेक कवि-सम्मेलनों में आपका योगदान अभिनन्दनीय है । इस विषय पर कुछ विचार व्यक्त करेंगे ।
* उत्तर : 
     विभिन्न प्रान्तीय, जातीय एवं आन्तर्जातीय संस्कृत सम्मेलनों में स्वतन्त्र अंशविशेष-स्वरूप कवि-सम्मेलन भी आयोजित होता है । मैंने जितने संस्कृत सम्मेलनों में अंशग्रहण किया है, उन्हींके अन्तर्गत सभी कवि-सम्मेलनों में भी मैंने मौलिक एवं निजस्व स्वर-संयोजित संस्कृत गीतों का सस्वर परिवेषण-पूर्वक बहुत आदर और अभिनन्दन प्राप्त किये हैं । इसके अतिरिक्त ओड़िशा के विभिन्न स्थानों में अनुष्ठित ओड़िआ कवि-सम्मिलनी, बहुभाषी-कवि-सम्मिलनी आदि में मैंने ओड़िआ, संस्कृत और हिन्दी में लिखित गीत और कविता का परिवेषण किया है । कुछ सभाओं में अध्यक्षासन पर अधिष्ठित हुआ हूँ । कुछ वर्षों पहले ‘कलाहाण्डि-उत्सव’ में अनुष्ठित बहुभाषी-कवि-सम्मेलन में उपस्थापक (संयोजक) के रूप में भी कार्य निभाया था एवं यह कार्यक्रम स्थानीय टीवी चैनेल् द्वारा प्रसारित हुआ था । १९९८ में ‘संस्कार-भारती’ अनुष्ठान द्वारा नागपुर में आयोजित ‘कलासाधक-सङ्गम’ कार्यक्रम के अन्तर्गत बहुभाषी-कवि-सम्मेलन में मेरा देशात्मबोधक गीत ‘संस्कृति-गीतिका’ (विजयतेतराम् ओंकार-भारती, संस्कार-भारती) अपने मौलिक स्वर सहित परिवेषण किया था  और वह विमुग्ध श्रोतृवर्ग द्वारा बहुत अभिनन्दित हुआ था ।  

* प्रश्न (१९) :  अनेक राष्ट्रीय एव अन्ताराष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में आपके शोधलेख और कवितायें प्रकाशित हैं । इस के बारे में कुछ अवगत करायेंगे ।
* उत्तर :   
     इस विषय में सूची लम्बी होगी । इसलिये संक्षेप में कुछ कहूँगा । भारत के विभिन्न प्रान्तों की सुप्रतिष्ठित पत्रपत्रिकाओं में मेरे कई लेख प्रकाशित हुए हैं, अतः मैं अपनेको भाग्यवान् मानता हूँ । मुख्यरूप से केन्द्र-साहित्य-अकादमी, दिल्ली की ‘संस्कृत-प्रतिभा’, दिल्ली संस्कृत अकादमी की ‘संस्कृत-मञ्जरी’, देववाणी परिषद्, दिल्ली की ‘अर्वाचीन-संस्कृतम्’, मध्यप्रदेश संस्कृत अकादमी की ‘दूर्वा’, राजस्थान संस्कृत अकादमी की ‘स्वर-मङ्गला’, ओड़िशा संस्कृत अकादमी की ‘वसुन्धरा’, भारतीय विद्याभवन, मुम्बई की ‘संविद्’, त्रिशूर केरल की ‘भारतमुद्रा’, दृग्‍भारती, इलाहाबाद की ‘दृक्’, प्रियवाक् परिषद्, पुरी की ‘प्रियवाक्’, लोकभाषा-प्रचार-समिति, पुरी की ‘लोकसुश्रीः’ एवं ‘लोकभाषा-सुश्रीः’, गङ्गानाथ-झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद की ‘उशती’, वीणापाणि संस्कृत-पीठ, भोपाल की ‘पद्यबन्धा’, संगीत कार्यालय, हाथरस, उत्तरप्रदेश की ‘संगीत’ आदि पत्रिकाओं में तथा पल्लव प्रकाशन, बैङ्गलुरु की ‘गॆय-संस्कृतम्’ आदि सङ्कलना में मेरी संस्कृत रचनायें प्रकाशित हुई हैं ।  
    संस्कृत अन्तर्जाल-पत्रिका ‘जाह्नवी’, ‘प्राची प्रज्ञा’ आदि में मेरे संस्कृत लेख तथा अंग्रेजी ई-पत्रिका ‘लोकरत्न’ और ‘म्यूज् इण्डिआ’ में अंग्रेजी लेख प्रकाशित हैं । अनेक ओड़िआ और हिन्दी पत्रिकाओं में भी मेरे लेख प्रकाशित हैं । हिन्दी ई-पत्रिका ‘सृजनगाथा’, ‘आखर कलश’, ‘नव्या’, ‘काव्यालय’ आदि में मेरे लेख स्थानित हैं । कई वर्षों पहले मुम्बई की अंग्रेजी पत्रिका ‘मिरर्’ में मेरे संस्कृत-विषयक अंग्रेजी लेख प्रकाशित हुआ था ।  ओड़िशा के प्रसिद्ध मुखपत्र और समाचार-पत्रों में भी मेरे कई लेख विभिन्न समयों में प्रकाशित हैं । विस्तृत विवरण आन्तरजाल पर मेरे जालस्थान में स्थापित है ।     
    
* प्रश्न (२०) :  आप अपनी साहित्यिक प्रतिभा के कारण विभिन्न अनुष्ठानों द्वारा सम्मानित एवं संवर्द्धित हुए  हैं । इसप्रकार सम्मान-प्रदान साहित्य की प्रगति की दिशा में सहायक होता है क्या ?  
* उत्तर :  
    एक सारस्वत साधक या लेखक कभी भी पुरस्कार या सम्मान की आशा रखकर लिखता नहीं । कोई सांस्कृतिक संस्था यदि लेखक की उल्लेखनीय कृति हेतु सामाजिक स्वीकृति देकर संवर्द्धित करे, तो वही सम्मान या संवर्द्धना लेखक के लिये एक उत्साहकारी उपादान के रूप में सम्मुख आकर अधिक प्रेरणा प्रदान करती है । मुझे विभिन्न समयों में अनेक सारस्वत एवं सांस्कृतिक अनुष्ठानों ने मानपत्रादि सहित सम्मानित और संवर्द्धित किया है । मेरी ‘कोशली मेघदूत’ पुस्तक के लिये सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योतिविहार, सम्बलपुर ने  २०१० में ‘डॉ. नीलमाधव पाणिग्राही सम्मान’ से सम्मानित किया है ।  

* प्रश्न (२१) :  आपकी काव्य-कृतियों पर कुछ विश्वविद्यालयों में गवेषणा भी हुई है । आधुनिक संस्कृत पाठ्यक्रमों में आपकी कविता आदि भी अन्तर्भुक्त हैं । इस विषय में कुछ मन्तव्य देंगे ।
* उत्तर :  
   मेरी जानकारी के अनुसार सागर विश्वविद्यालय और उत्कल विश्वविद्यालय में आधुनिक संस्कृत गीतिकविता-विषयक कुछ पीएच्.डी. शोध-निबन्धों में मेरी रचनावली का समीक्षात्मक विवेचन भी अन्तर्भुक्त है । बिलासपुर के डॉ. सी.वी.रमण विश्वविद्यालय में एक शोध-छात्रा मेरी कृतियों पर एम्.फिल्. शोध-निबन्ध (‘आधुनिक संस्कृत-साहित्य में हरेकृष्ण-मेहेर का योगदान’) प्रस्तुत करके उपाधिप्राप्त हुई हैं । राष्ट्रीय संस्कृत-संस्थान, सदाशिव-परिसर, पुरी में एक अध्यापिका मेरे संस्कृत कृतियों पर पीएच्.डी. गवेषणा-निबन्ध प्रस्तुत कर रही हैं । इनके अतिरिक्त भारत की विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में और संगोष्ठियों में मेरी संस्कृत-काव्यों के बारे में अन्य लेखकों द्वारा प्रस्तुत लेख परिवेषित हुए हैं । कुछ विश्वविद्यालयों में मेरी संस्कृत कवितायें पाठ्यक्रम में अन्तर्भुक्त हुई हैं । मेरा नैषधचरित-विषयक पीएच्.डी. गवेषणा-ग्रन्थ दिल्ली-विश्वविद्यालय आदि के पाठ्यक्रम की सहायक-ग्रन्थ-सूची में स्थानित है ।   

* प्रश्न (२२) :  स्वभावकवि गङ्गाधर मेहेर के श्रेष्ठ महाकाव्य ‘तपस्विनी’ का हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत त्रिभाषी अनुवाद करके आप विश्व- दरबार में उनको सुपरिचित कराने में सहायक हुए हैं । क्या कवि की अन्य रचनाओं का अनुवाद किया है ? इस अनुवाद के बारे में कुछ कहेंगे ।  
* उत्तर :   
   बरगड़ में अवस्थान-काल में ‘तपस्विनी’ के हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद, और भवानीपाटना में रहते समय संस्कृत अनुवाद किये थे । सुयोग के अभाव के कारण कई वर्षों तक प्रकाशित नहीं हो सका । समय-क्रम से मेरी ‘हिन्दी तपस्विनी’ पुस्तक सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योतिविहार, सम्बलपुर द्वारा २००० में प्रकाशित हुई । ‘अंग्रेजी तपस्विनी’ कलकाता की आर्.एन्.भट्टाचार्य-संस्था द्वारा २००९ में प्रकाशित होकर आन्तर्जातिक स्तर पर ख्याति-प्राप्त है । ‘संस्कृत तपस्विनी’ दिल्ली की परिमल पब्लिकेशन् संस्था द्वारा २०१२ में प्रकाशित होकर विश्वभर प्रसारित हुई है । यह निश्चितरूप से मेरे लिये तथा ओड़िआ साहित्य के लिये अत्यन्त गौरव एवं आनन्द का विषय है । कवि के ‘प्रणयवल्लरी’ काव्य का २००० में हिन्दी-अंग्रेजी में अनुवाद किया था । इसके अतिरिक्त ‘कीचकवध’ काव्य का हिन्दी अनुवाद किया है । ‘अर्घ्यथाली’ काव्य की कुछ निर्वाचित कविताओं का हिन्दी-अंग्रेजी-संस्कृत में अनुवाद किया है । सुयोग के अभाव के कारण ये सब अद्यापि अप्रकाशित हैं । अन्तर्जाल पर मेरे अपने जालस्थान में त्रिभाषी ‘तपस्विनी’ पुस्तकें पूर्णरूप से स्थानित हैं । विदेशीय साहित्यिकगण भी इनके प्रति आकर्षित हुए हैं । 
  
* प्रश्न (२३) :  सेवानिवृत्ति के पश्चात् आपकी साहित्यिक कार्यावली जारी है । इसके साथ कुछ संगीतकार्य भी चल रहा है । इस विषय पर हमें कुछ अवगत करायेंगे । 
* उत्तर :   
     शिक्षासेवा में रहते समय व्यस्तता के कारण समय-सुविधा देखकर रात्रि में विनिद्र रहकर भी साहित्यिक कार्य चलता रहता था । सेवानिवृत्ति के अनन्तर स्वाधीनरूप से कुछ साहित्य-सेवा में मनोयोग रखा है । कई वर्षों से पड़ी हुई पुरानी रचनाओं का संग्रह करके  प्रकाशित करने हेतु प्रयास जारी है । कई नये लेख भी हैं । मेरे पूज्य पितामह एवं पिताजी की कुछ रचनायें बहुत वर्षों पहले कटक के अरुणोदय प्रेस्, धर्मग्रन्थ स्टोर तथा ब्रह्मपुर के बाणीभण्डार आदि प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित हैं । तो उनकी समग्र रचनाचली को सङ्कलित करके स्वतन्त्ररूप से ‘ग्रन्थावली’ आकार में प्रकाशन करने की अभिलाषा है । पितामह एवं पिताजी की रचनावली के बारे में कुछ विषय अन्तर्जाल पर भी उपलब्ध हैं । मेरे कुछ संस्कृत और ओड़िआ गीतों को कैसेट् या ऐल्बम् रूप में प्रस्तुत करने की इच्छा भी है । प्रयास जारी है । समय अनुकूल होगा तो सफलता आयेगी, यह मेरी आशा है ।  

* प्रश्न (२४) :  आधुनिक युवापीढ़ी के लेखकों के लिये आपका सन्देश क्या है ? 
* उत्तर :  
     सम्प्रति विज्ञान-युग में प्रतिभा के विकास के लिये बहुत साधन उपलब्ध हैं । सारस्वत दिशा में जो लेखक साधना-रत हैं, मूल्यबोध-भित्तिक रचना लेखने हेतु उनका मनोनिवेश करना आवश्यक है । संस्कारमूलक तथा देशप्रेम-बोधक तत्त्वावली आज के युग में अपेक्षित है । सकारात्मक चिन्तन के साथ जीवनधर्मी रचना कालजयी बनने का सामर्थ्य रखती है । समाज को जो हानि पहुँचाये, ऐसा लेख कभी भी वाञ्छनीय नहीं है । आज के युवा लेखकवर्ग आधुनिक-दृष्टिभङ्गी-सम्पन्न एवं वास्तववादी हैं, फिर भी शाश्वत मूल्यबोध पर गुरुत्व देकर आत्मविश्वास और आन्तरिकता के साथ लेखनी-चालन करना चाहिये । 

* प्रश्न (२५) :  ‘बर्त्तिका’ मुखपत्र के बारे में आपका मत कैसा है, कुछ अवगत करायेंगे ।  

* उत्तर :   
    ओड़िआ मुखपत्रों की श्रेणी में ‘बर्त्तिका’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।  इस अग्रगण्य पत्रिका में विभिन्न रुचियों के कई गुणात्मक लेख विशेष उपादेय एवं पाठकों के प्रियभाजन हैं । इसमें कई नूतन और पुरातन सारस्वत साधकों की प्रतिभा का सुपरिचय लेखों से उपलब्ध होता है । सुन्दर, आकर्षणीय और सुरुचि-सम्पन्न सम्पादना हेतु आपलोगों के प्रति आन्तरिक धन्यवाद और साधुवाद ज्ञापन करता हूँ । पत्रिका की उत्तरोत्तर उन्नति के लिये मेरी हार्दिक शुभकामनायें । आशा और विश्वास है, यह पत्रिका ओड़िशा के सारस्वत क्षेत्र में एक ज्योतिर्मय वर्त्तिका के रूप में दीप्यमान होकर अपना नाम सार्थक करती रहेगी ।  
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साक्षात्कार : उपस्थापना एवं प्रस्तुति :  
डॉ. नवकिशोर मिश्र (मुख्य सम्पादक, ‘बर्त्तिका’)  
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Some Links added here for Web Reference :
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Biodata : Harekrishna Meher :
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Kavi Manohar Meher Blog :
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Kavi Narayan Bharasa Meher Blog :
*
Philosophical Reflections in the Naishadhacarita (Ph.D. Thesis) :
*
Matrigitikanjalih (Sanskrit Gitikavya) :
*
Some Comments on ‘Matrigitikanjalih’ Kavya :
*
Tapasvini Kavya of Gangadhar Meher (Hindi-English-Sanskrit Versions}:
*
DD News, Vaartavali : Sanskrit Version of ‘Ek Pyar Ka Nagma Hai’ Song:
*
Chalachitra-Gita-Sanskritaayanam (Anthology of Sanskrit Version Film Songs): 
*
Videos of Harekrishna Meher (YouTube Link) :
*
Doordarshan, All India Radio and Other Links :
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Translated Works by Harekrishna Meher :
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Contributions of Harekrishna Meher to Sanskrit Literature :
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कोशली मेघदूत : Koshali Meghaduta : 
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List of Places where Harekrishna Meher and his works are
Referred by others in the field of Research and like matters :   
Interview with Dr. Harekrishna Meher by Dr. Naba Kishore Mishra,
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Related Link : 
Interview with Dr. Harekrishna Meher : 
By  Sri  Sunil Joshi: Sanskrit Saptahiki, All India Radio, New Delhi : 
Broadcast on  12 June 2021 : 
BlogLink : 
Youtube Video Link :  https://youtu.be/n0XPok3m-rM

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